उद्योग की प्रतिस्पर्धी क्षमता को कायम रखते हुए कपास उत्पादकों को लाभप्रद मूल्य दिलाने का सुझाव

20-Jun-2025 06:19 PM

अहमदाबाद। एक अग्रणी व्यापारिक संगठन- कॉटन एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीएआई) ने कहा है कि कपास उत्पादकों को उसके उत्पाद (रूई) का आकर्षक एवं लाभप्रद मूल्य सुनिश्चित करने के क्रम में सरकार को यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि इससे टेक्सटाइल उद्योग की प्रतिस्पर्धी क्षमता को आघात न लगे।

कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में प्रति वर्ष जोरदार बढ़ोत्तरी हो रही है जिससे रूई की मूल्य श्रृंखला के लिए गंभीर चुनौती उत्पन्न हो गई है।

उद्योग व्यापार क्षेत्र ने समतुल्य समाधान की आवश्यकता पर जोर दिया है ताकि किसानों को नुकसान न हो और उद्योग की प्रतिस्पर्धी क्षमता भी बरकरार रह सके। 

एसोसिएशन का कहना है कि उत्पादकों एवं उद्योग के हितों को समान महत्व देना जरुरी है और इसके लिए कपास क्षेत्र के वास्ते भावान्तर भुगतान योजना जैसे स्कीम पर विचार किया जाना चाहिए।

इसके तहत यदि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे दाम पर अपनी रूई बेचनी पड़े तो उसके अंतर का भुगतान सरकार द्वारा किया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने 2025-26 के मार्केटिंग सीजन (अक्टूबर-सितम्बर) के लिए रूई के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 589 रुपए प्रति क्विंटल का जबरदस्त इजाफा कर दिया है जिससे मीडियम रेशेवाली किस्म का समर्थन मूल्य 7121 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़कर 7710 रुपए प्रति क्विंटल और लम्बे रेशेवाली श्रेणी का एमएसपी 7521 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़कर 8110 रुपए प्रति क्विंटल हो गया है।

एसोसिएशन का कहना है कि इतने ऊंचे मूल्य स्तर पर रूई की खरीद करके उससे जो उत्पाद बनाए जाएंगे वे स्वाभाविक रूप से काफी महंगे होंगे और वैश्विक बाजार में उसका निर्यात करना मुश्किल होगा क्योंकि चीन, बांग्ला देश, पाकिस्तान एवं वियतनाम सहित अन्य देशों का उत्पाद सस्ते दाम पर उपलब्ध होगा। 

ऊंचे समर्थन मूल्य के कारण 2024-25 के वर्तमान मार्केटिंग सीजन में स्वदेशी रूई की खरीद में कॉटन टेक्सटाइल मिलों की दिलचस्पी घट गई, रूई का घरेलू बाजार भाव नीचे आ गया और सरकारी एजेंसी भारतीय कपास निगम (सीसीआई) को किसानों से लगभग 100 लाख गांठ कपास की खरीद करने के लिए विवश होना पड़ा।

दूसरी और विदेशों से रूई का आयात सस्ता बैठ रहा है। उद्योग-व्यापार क्षेत्र  का कहना है कि कपास के एमएसपी में प्रत्येक वर्ष भारी बढ़ोत्तरी होने से संकट बढ़ गया है। इससे अंततः सरकार पर ही भार बढ़ रहा है और टेक्सटाइल मिलों की गतिविधियों पर भी असर पड़ने लगा है।